Thursday 1 August 2013

'वो'

खिले हुए चेहरे पर
मुरझाई सी बिंदी-पाउडर
उसके,
दर्द की लकीरों को छिपाती होगी

होंठ तो उसके
आज भी  गुलाबी हैं
पर शायद मनचला
कोई देख न ले,
'वो' लिपस्टिक की परत लगाती होगी

बहुत खूबसूरत लगती है
जब साडी पहन के आती है,
उन्हें,
जो गिद्ध की तरह बैठे हैं
नौंच खाने को
मगर 'वो' गोरी कमर के पीछे
'अपने' ने दी हुई चोट
को सभी से छुपाकर  
खुद को बचाती भी होगी

रोज छोड़ कर चली आती है
अपने नन्हे बच्चों को,
जिन्होंने ये कहकर,
कल उसे छोड़ जाना है
'तुमने' हमें वख्त ही कहाँ दिया
'वो'जानती भी है
समाज के ठेकेदार
झूठ, फरेब, बदनामी
सब दे गए उसे
और अपने इतने मेहरबान
के,
दे डाले ढेरों ख़िताब
एक  अछी -  बहु, पत्नी, माँ
के  आगे शब्द ''ना '
और 'वो' इतनी गरीब
'प्यार'  के सिवा कुछ नहीं दे पाई होगी

कोई नहीं जनता
ये 'आधुनिक नारी'
एक पिंजरे से दुसरे ,
घर- बाहर कितनी ही
सिसकियाँ दबाती होगी ।

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