Monday 29 July 2013

घाव

मैंने सोचा भी कैसे,
घाव भर जायेंगे
मैं भूल जाऊंगी तुम्हे
और सावन लौट आएंगे।।

कोशिशें तो की बहुत
बारिशों में भीगने की,,
दर्द का दरिया
बना छाता तो कभी,,
अकेलापन मुझे सुखाये रहा
खुशिया खिसकती रहीं
रेत की तरह और ,,
भारी हुई जिंदगी मेरी।

यूँ तो हर रात,
आंख लग ही जाती हैं
निष्फल उमीदों की सेज पर
पहाड़ सा लगता हैं कभी
सिर्फ जिन्दा रहना,,
प्रतिदिन की दौड़-भाग
बड़ते-घटते दुःख
दम घोंटते रिश्ते
छोटे-बड़े सपने बुनके
उन्हें टूटते हुए
देख कर रोना
फिर उसी माया-जाल में
डूबना बार-बार
जिसे धिक्कारने को
मन करता है
की बहुत जी लिया,,
और चैन से सोने को
मन करता है

अब तो लगता है
खून के आखरी कतरे तक
नित नए जख्म
रिसते जाएँगे,,
 रिसते जाएँगे।




 



         


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